Thursday, January 5, 2012

कविता तुमसे उपहार मांगती हूँ मैं!!!

नव  वर्ष  की  पावन बेला  में
कविता  तुमसे  उपहार  मांगती  हूँ  मैं
शब्दों  के  ताने  बाने  से
भावों  का  श्रृंगार  मांगती  हूँ  मैं!!!

विचलित  है  मन, गहराता  तम
देखो  पीड़ित, शोषित  जन  जन
हँस  रहा  सिर्फ  कलयुग  का  प्रण
लुट  गया  हा! संतों  का  धन
देवों  की  भूमि  विलाप  रही
मैं  बनी  हा! दैत्यों  का  वन

कविता  फिर  आज  तुम्हें  जगना  होगा
बन  रक्त  सुधा  बहना  होगा
इस  दिवा-निशा  के  क्रंदन  से, निस्तार  मांगती  हूँ  मैं!!!
चीरे  जो  अंतर-घन  को, ऐसी  हुंकार  मांगती  हूँ  मैं!!!

कुछ  गुण  गौरव  जो  पाले  थे
वर्षों  की  साधना  से  डाले  थे
तज दिए  हमने  संस्कार  सभी
भक्ति   के  पावन  उपहार  सभी
अब  भ्रमित  यूँ हीं बस  फिरतें  हैं
नित  और  पतित  हो  गिरते  हैं

भूलों  को  राह  दिखाओ  तुम
बस  वापस  उन्हें  बुलाओ  तुम
सींचे  जो  शुष्क  हृदय  को, विशुद्ध  वो  प्यार  मांगती  हूँ  मैं!!!.
लौटें  सब  सत   की  ओर, ऐसी  पुकार  मांगती  हूँ  मैं!!!

दुःख  से  बोझिल  नयनों  को  देखो
हास्य  विमुख  अधरों  को  देखो
चीत्कार  दबी  जिनके  अंतर  में
मन  के  उन  निराश  सदनों  को  देखो
आ जाओ  कुछ  हरकत  तो  हो
हँसने  रोने  का  कुछ  मतलब  तो  हो

भावों  के  निर्जन  वन  में बसंत  बहार  बनो  तुम
जीवन  की तप्त  रेत पर, सावन  की  बौछार  बनो  तुम
जो  भस्म  करे  सब  जड़ता  को, वो  ज्वार  मांगती  हूँ  मैं!!!
गम  के  मेले  में  तुमसे, किलकारी  का  त्योहार  मांगती  हूँ  मैं!!!

नव  वर्ष  की  पावन बेला  में
कविता  तुमसे  उपहार  मांगती  हूँ  मैं
शब्दों  के  ताने  बने  से
भावों  का  श्रृंगार  मांगती  हूँ  मैं!!!.

Saturday, December 31, 2011

यात्रा श्वेत तक...!

समय को कौन पकड़े,
मुट्ठी भर रेत है,
एक और वर्ष बीत गया,
न जाने कितना शेष है..

मन की कई चेतनाएं..
उन चेतनाओं के कई भाव हैं,
फिर भी जीवन में आज,
अनचाहा ठहराव है..

हर भाव का रंग अलग,
उसकी पृष्ठभूमि में भेद है,
पर जो सारे रंग समेटे,
वो सादा रंग श्वेत है..!

उस श्वेत रंग को अपनाना है..
अभी बड़ी दूर जाना है..
न कर सकते शिकायत.. न चलता बहाना है,
पाला जब आँखों में सपना सुहाना है..!

आज भी हर रास्ता जुदा है..,
दिशाओं की खोज है,
उद्गार कई हैं मानस में,
पर गुम होता ओज है..

यह कोई नयी अनुभूति नहीं,
वर्षों का शोध है..
ग्लानि सिर्फ इसलिए,
कि इसका मुझे बोध है..!

नव वर्ष की बेला में,
जीवन क्यों निस्तेज है?
रंग भरता सबके जीवन में,
जब एक ही रंगरेज़ है..!

आज मेरे मन के आँगन में..
फिर ललकार रही मेरी आशा है..
राही गर सच्चा हो,
तो न रास्ता.. न दिशा ही बाधा है..!

उठो चलो.. गर श्वेत रंग पाना है..!
उठो चलो.. गर सितारों से आगे जाना है..!
उठो चलो.. यात्रा अभी शेष है..!
उठो चलो.. क्योंकि काल की गति तेज है..!

समय को कौन पकड़े,
मुट्ठी भर रेत है..
एक और वर्ष बीत गया,
न जाने कितना शेष है…!!!

सभी मित्रों को नव वर्ष की हार्दिक मंगलकामनाएं!!!

Wednesday, December 28, 2011

कुछ दूर चलना भी ज़रूरी है..!

कुछ  सपनों  का  टूटना  भी  ज़रूरी  है,
कुछ  ख्वाइशों का  अधुरा  रहना  भी  ज़रूरी  है,
जो  एक  पल  में मंज़िल  तय  हो.. तो  जश्न  कैसा?
कुछ  दूर  चलना  भी  ज़रूरी  है..

वो  जो  विशाल  शिला  मार्ग  अवरुद्ध  किये  बैठी  है,
वो  मील  का  पत्थर  भी  बन  सकती  है,
उस  राह  जाने  में  डर  कैसा?
कभी  कभी  ठोकर  खाना  भी  ज़रूरी  है
कुछ  दूर  चलना  भी  ज़रूरी  है..

सपनों  के  भी  रूप  बदल  जाते  हैं
रिश्तों  के नए  मायने  समझ  आते  हैं
अविरल  गति  से  चलता  है  कालचक्र  लाता है  परिवर्तन,
परन्तु  सतत  परिवर्तन  के  मूल  में  छुपे,
शाश्वत  सत्य  को  समझना  ज़रूरी  है..
कुछ  दूर  चलना  भी  ज़रूरी  है..

इस  सफ़र  में  नित  नूतन  सम्बन्ध  बनते  हैं,
कुछ  अपनत्व, कुछ  धर्म  तो  कुछ  समर्पण  के  कगार  पर  बंधते  हैं,
कुछ  में  बे-शर्त  समर्थन  का  बल  है,
तो  कुछ  में  पतित  द्वेष  का  मल है..
किन्तु  धर्मपथ  पर, सब  को  साथ  लेकर  बढ़ना  ज़रूरी  है
कुछ  दूर  चलना  भी  ज़रूरी  है..

मंज़िलें  किसी  गंतव्य  का  ठिकाना  नहीं..
वो  कोई  मुकाम  नहीं.., मंज़िलें  तो  ध्येय  मात्र  हैं..
ध्येय  स्व उत्थान  का, ध्येय  निज  पहचान  का,
ध्येय  सतत  चलने  का, बाधाओं  से  अविरल  संग्राम  का
जो  सिद्ध  ध्येय  चिर  शय्या  तक  पहुंचे, तो  उस  मृत्यु  में  जीवन  की  सार्थकता  पूरी  है..
कुछ  दूर  चलना  भी  ज़रूरी  है..

Thursday, December 22, 2011

यादों के चलचित्र सुहाने!

कभी यूँ ही एकाकी मन में
बीच कभी किसी जन संगम में
कभी निराशा की लड़ियों में
या सुख से हंसती अँखियों में
आ जाते हैं ये मनमाने...
यादों के चलचित्र सुहाने!!!

कुछ आते हैं दूर देश से
कुछ के हैं चेहरे अनजाने
कुछ मृगतृष्णा से हाथ न आते
कुछ घने जलद से, हैं रुक जाते
स्मृतियों का सावन बरसाने...
यादों के चलचित्र सुहाने!!!

कहीं खेलता भोला बचपन
मदमाता कहीं दम्भी यौवन
भय से कुछ कम्पित कर जाते
कुछ हैं जो हरदम हरसाते
कुछ भूले बिसरे से अफसाने...
यादों के चलचित्र सुहाने!!!

कुछ के मतलब रोज़ बदलते
कुछ नित नूतन हो मिलते
कुछ में जीवन दर्शन होता
कुछ का रीतापन है खलता
कुछ में दिखते सब दीवाने...
यादों के चलचित्र सुहाने!!!

कुछ आते हैं आमंत्रण पर
कुछ गिरते हैं विद्युत् बन कर
भरने को रिक्त हृदय के गागर
लहराने नयनो में सागर
बीते लम्हों के नजराने...
यादों के चलचित्र सुहाने!!!

Tuesday, December 13, 2011

मेरे मन तेरी कौन दिशा...!

मूक अचंभित खड़ी छोर पर,
सुनती हूँ तेरा कोलाहल..
क्षण क्षण में जो हो परिवर्तन,
उसे समझने को बेकल..

कभी हँसाए कभी रुलाये,
तेरी नित नूतन विधा,
मेरे मन तेरी कौन दिशा?

कभी सजग कर मुझे,
दूर रखता तू जीवन के भ्रम से
और सुहाते तुझे कभी,
सिरहाने पर रखे सपने क्रम से

कभी उड़े उन्मुक्त गगन में,
तू निज पंख पसारे,
और द्रवित हो सुनते..
जब भी तुझको धरा पुकारे.

सूर्य नमन करते हो जब भी,
होती कोई नयी दिवा,
और कभी क्रीडा करते हो,
होती जब निशब्द निशा.

मैं क्या समझूं, मैं क्या बोधूं
तेरी तो है, बड़ी विचित्र दशा
मेरे मन तेरी कौन दिशा?

अपनी गरिमा आप समेटे.
फिरे कभी तू एकाकी,
और कहीं है मूक समर्पण,
हुआ जहाँ हा! सम्मान हनन... आस न रही बाकी

अनायास ही खिल जाते हो,
सुनकर बाल सुलभ किलकारी
और कभी ढूँढा करते हो,
संतों की वाणी हितकारी..

तज कर मोह मिथ्या आडम्बर,
हुए कभी तुम अविनाशी.
भूल भुलैया में फंसते हो,
घेरे जब भी तृष्णा प्यासी

तेरी शाश्वत चाह कौन सी
बुद्ध योणि या पतित स्पृहा,
मेरे मन तेरी कौन दिशा?

जो भी हो तुम, जैसे भी हो,
हो मेरे अनन्य सखा,
हैं कौन जो सुन सकता हो,
मेरी जीवन-व्यथा कथा.

समस्त विश्व है तेरा आँचल,
यह तो मैंने अब जाना,
और कहते हो मुझे,
“जो चाहे तुम वो अपनाना”

लोभ, मोह, ज्ञान, गुण, चिंतन-
सब हैं तेरे अन्दर
मर्यादा परुषोत्तम राम तुम ही,
वृन्दावन के घनश्याम तुम ही

दृश्य जगत में नहीं दिखता,
कोई मुझको तेरा सानी,
मेरे सखा, मार्गदर्शक तुम
और मेरे तुम गुरु ज्ञानी

कुछ अनुचित हो, तो तुम बोलो
होगी न मुझे भी लेश वृथा
मेरे मन तेरी कौन दिशा?

जिस अदृश्य के प्रताप से,
मुझको चलचित्र दिखाते हो,
क्या मेरी भी व्यथा-वेदना,
उसको कभी सुनाते हो?

क्या मुझको आदेश?
क्या मार्ग स्वयं ही चुनना है?
या समेट सारे अनुभव को,
कलकल नदिया सम बहना है?

एक प्रश्न .. हे ! जगदीश्वर,
जो उचित लगे तो उत्तर देना.
क्या जीवन का सार यही,
"अथ से इति" तक बहते रहना?

बहना भी है कब तक?
कब होगी जीवन में भोर?
कहाँ बसे हैं मेरे प्रियतम?
कहाँ मेरे सागर का ठौर?

मैंने जो भी समझा भ्रम है?
या उसकी असीम कृपा..
मेरे मन तेरी कौन दिशा..!!!