मूक अचंभित खड़ी छोर पर,
सुनती हूँ तेरा कोलाहल..
क्षण क्षण में जो हो परिवर्तन,
उसे समझने को बेकल..
कभी हँसाए कभी रुलाये,
तेरी नित नूतन विधा,
मेरे मन तेरी कौन दिशा?
कभी सजग कर मुझे,
दूर रखता तू जीवन के भ्रम से
और सुहाते तुझे कभी,
सिरहाने पर रखे सपने क्रम से
कभी उड़े उन्मुक्त गगन में,
तू निज पंख पसारे,
और द्रवित हो सुनते..
जब भी तुझको धरा पुकारे.
सूर्य नमन करते हो जब भी,
होती कोई नयी दिवा,
और कभी क्रीडा करते हो,
होती जब निशब्द निशा.
मैं क्या समझूं, मैं क्या बोधूं
तेरी तो है, बड़ी विचित्र दशा
मेरे मन तेरी कौन दिशा?
अपनी गरिमा आप समेटे.
फिरे कभी तू एकाकी,
और कहीं है मूक समर्पण,
हुआ जहाँ हा! सम्मान हनन... आस न रही बाकी
अनायास ही खिल जाते हो,
सुनकर बाल सुलभ किलकारी
और कभी ढूँढा करते हो,
संतों की वाणी हितकारी..
तज कर मोह मिथ्या आडम्बर,
हुए कभी तुम अविनाशी.
भूल भुलैया में फंसते हो,
घेरे जब भी तृष्णा प्यासी
तेरी शाश्वत चाह कौन सी
बुद्ध योणि या पतित स्पृहा,
मेरे मन तेरी कौन दिशा?
जो भी हो तुम, जैसे भी हो,
हो मेरे अनन्य सखा,
हैं कौन जो सुन सकता हो,
मेरी जीवन-व्यथा कथा.
समस्त विश्व है तेरा आँचल,
यह तो मैंने अब जाना,
और कहते हो मुझे,
“जो चाहे तुम वो अपनाना”
लोभ, मोह, ज्ञान, गुण, चिंतन-
सब हैं तेरे अन्दर
मर्यादा परुषोत्तम राम तुम ही,
वृन्दावन के घनश्याम तुम ही
दृश्य जगत में नहीं दिखता,
कोई मुझको तेरा सानी,
मेरे सखा, मार्गदर्शक तुम
और मेरे तुम गुरु ज्ञानी
कुछ अनुचित हो, तो तुम बोलो
होगी न मुझे भी लेश वृथा
मेरे मन तेरी कौन दिशा?
जिस अदृश्य के प्रताप से,
मुझको चलचित्र दिखाते हो,
क्या मेरी भी व्यथा-वेदना,
उसको कभी सुनाते हो?
क्या मुझको आदेश?
क्या मार्ग स्वयं ही चुनना है?
या समेट सारे अनुभव को,
कलकल नदिया सम बहना है?
एक प्रश्न .. हे ! जगदीश्वर,
जो उचित लगे तो उत्तर देना.
क्या जीवन का सार यही,
"अथ से इति" तक बहते रहना?
बहना भी है कब तक?
कब होगी जीवन में भोर?
कहाँ बसे हैं मेरे प्रियतम?
कहाँ मेरे सागर का ठौर?
मैंने जो भी समझा भ्रम है?
या उसकी असीम कृपा..
मेरे मन तेरी कौन दिशा..!!!
सुस्वागतम!
ReplyDeleteप्रिय श्वेता, तुम्हारी लेखनी अपनी दिशा ढूंढती हुई कई पथिकों को दिशा देगी...!
शुद्ध हृदय से किये गए सृजन की यही विशेषता होती है...!
हार्दिक शुभकामनाएं और एक बार पुनः स्वागत...!!!
'अनायास ही खिल जाते हो,
ReplyDeleteसुनकर बाल सुलभ किलकारी'
'जो भी हो तुम, जैसे भी हो,
हो मेरे अनन्य सखा'
'समस्त विश्व है तेरा आँचल,
यह तो मैंने अब जाना'
'क्या जीवन का सार यही,
"अथ से इति" तक बहते रहना'
बेहद खूबसूरत भावों शब्दों से सजी यह रचना ..
शुभकामनायें ..
समस्त विश्व है तेरा आँचल,
ReplyDeleteयह तो मैंने अब जाना,
और कहते हो मुझे,
“जो चाहे तुम वो अपनाना”
बेहतरीन पंक्तियाँ हैं।
बहुत अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकार।
सादर
लोभ, मोह, ज्ञान, गुण, चिंतन-
ReplyDeleteसब हैं तेरे अन्दर
मर्यादा परुषोत्तम राम तुम ही,
वृन्दावन के घनश्याम तुम ही .....Bahut hi sunder panktiyan hain, jeevant aur prabhavshali.....badhai....
समस्त विश्व है तेरा आँचल,
ReplyDeleteयह तो मैंने अब जाना,
और कहते हो मुझे,
“जो चाहे तुम वो अपनाना”....बहुत खुबसूरत भाव से ओत प्रोत एक प्रभावशाली सुन्दर सशक्त रचना..अच्छा लगा यहाँ आकर..स्वागत आप का...
sahaj shabdo se saji ek utkrisht rachana
ReplyDeletebahut sundar prabhaavshali rachna...behtreen.
ReplyDeleteएक प्रश्न .. हे ! जगदीश्वर,
ReplyDeleteजो उचित लगे तो उत्तर देना.
क्या जीवन का सार यही,
"अथ से इति" तक बहते रहना?
...सार्थक प्रश्न उठाती बहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति..शुभकामनायें!
सुन्दर और बहुत ही मनभावन अभिव्यक्ति ...यूँ ही लिखते चलिए ....
ReplyDeleteप्रभावित करते भाव ..... सुंदर सशक्त रचना है.....
ReplyDeleteसुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति........
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteकल 16/12/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
मैं आपसे कुछ दिनों पहले ही आई हूँ , शायद आपके स्वागत के लिए.... ! बहुत गहन अभिव्यक्ति.... !!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति ...
ReplyDeletemere man teri kaun disha ....bahut khub,bahut sundar...
ReplyDeletewelcome to my blog :)
अपनी गरिमा आप समेटे.
ReplyDeleteफिरे कभी तू एकाकी,
और कहीं है मूक समर्पण,
हुआ जहाँ हा! सम्मान हनन... आस न रही बाकी
behad prabhawshali
Wah!!! Bahut hi sundar likha hai...
ReplyDeletewww.poeticprakash.com
वाह बहुत सार्थक अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteएक प्रश्न .. हे ! जगदीश्वर,
जो उचित लगे तो उत्तर देना.
क्या जीवन का सार यही,
"अथ से इति" तक बहते रहना?
पढ़ कर बहुत अच्छा लगा.
शुभकामनाएं
उत्तम सृजन... सशक्त भाव...
ReplyDeleteसादर बधाई...
सार्थक प्रश्न... सुंदर अभिव्यक्ति..शुभकामनायें!
ReplyDeleteसंजय भास्कर
आदत....मुस्कुराने की
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
'समस्त विश्व है तेरा आँचल,
ReplyDeleteयह तो मैंने अब जाना'
'क्या जीवन का सार यही,
"अथ से इति" तक बहते रहना'
बहुत ही भाव पूर्ण आत्ममंथन ..अति सुन्दर अभिव्यक्ति ...शुभ कामनाएं
जीवन का सार यही है अथ से इति तक बहते रहना ....
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी आपकी रचना - मेरे मन तेरी कौन दिशा ?
भाव पूर्ण सुंदर प्रस्तुति बढ़िया पोस्ट ,....
ReplyDeleteमेरी नई पोस्ट की चंद लाइनें पेश है....
नेता,चोर,और तनखैया, सियासती भगवांन हो गए
अमरशहीद मातृभूमि के, गुमनामी में आज खो गए,
भूल हुई शासन दे डाला, सरे आम दु:शाशन को
हर चौराहा चीर हरन है, व्याकुल जनता राशन को,
पूरी रचना पढ़ने के लिए काव्यान्जलि मे click करे
एक प्रश्न .. हे ! जगदीश्वर,
ReplyDeleteजो उचित लगे तो उत्तर देना.
क्या जीवन का सार यही,
"अथ से इति" तक बहते रहना?
स्वेता जी सुस्वागतम बहत सुंदर ढंग से पिरोया है शब्दों को
मन की दिशा खोजने मैं
अपनी गरिमा आप समेटे.
ReplyDeleteफिरे कभी तू एकाकी,
और कहीं है मूक समर्पण,
हुआ जहाँ हा! सम्मान हनन... आस न रही बाकी
अनायास ही खिल जाते हो,
सुनकर बाल सुलभ किलकारी
और कभी ढूँढा करते हो,
संतों की वाणी हितकारी..
बहना भी है कब तक?
कब होगी जीवन में भोर?
कहाँ बसे हैं मेरे प्रियतम?
कहाँ मेरे सागर का ठौर?
मैंने जो भी समझा भ्रम है?
या उसकी असीम कृपा..
मेरे मन तेरी कौन दिशा..!!!
भावों की प्रचुरता...
शब्दों की मधुर संयोजन......
सुन्दर और उत्कृष्ट रचना.....